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अरसे बाद आज मै साहित्यिक कार्यकर्म में भाग लेने गयी थी. कार्यकर्म की शुरुआत पहले तो अच्छे ढंग से शुरू हुयी . दूर-दूर से अतिथिगन बुलाये गए थे. नए साल के उपलक्ष्य में छोटे-छोटे बच्चे सांस्कृतिक कार्यकर्म में भाग लेने के लिए उत्सुक दिखाई दे रहे थे. उपस्थित अतिथियों(साहित्यकार ) में एक बात की समानताये यह थी कि अलग-अलग भाषा-भाषी के होते हुए भी दिल में इंसानियत से भरा हुवा था . यह देख मुझे बहुत खुशी हुई .संचालक महोदई कार्यकर्म को आगे बढ़ाते हुए अतिथि वृन्दो से एक कर उनके विचार रखने के लिए आमंत्रित करते गए .कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि बच्चे जो नाचने के लिए तैयार बैठे थे वो अब उकताने लगे थे .श्रोता तथा दर्शक भी जैसे कुछ नयापन देखने के लिए तरसने लगे.जी हाँ , लगातार एक के बाद एक लम्बे भाषण से कुछ -कुछ तो ऊँघने लगे थे .जो भी व्यक्ति भाषण दे रहे थे भाषण लम्बे हो रहे थे. मुझे लगा आज ही शायद उन्हें मौका मिला होगा अपनी बात रखने का .कॉलेज के दिनों हमारे गुरुजी कहते थे कि भाषण ८ मिनट से ज्यादा नहीं होना चाहिए .क्योकि दुसरो कि पारी का ख्याल भी रखना चाहिए.बच्चो के लिए मुझे बुरा लग रहा था. संचालग महोदोई विवश दिखाई देने लगे. कार्यकर्म तो ठीकठाक ही था पर मुझे लगा सञ्चालन में कही कुछ चुक हो गयी . अतिथिगन अपनी -अपनी बाते रखकर धीरे- धीरे सभापति महोदई से विदा लेकर जाने लगे. अंत में कुछ दर्शके, सभापति महोदई , के सामने बच्चोने नृत्य पेश किया. हालाँकि बच्चो में जोश कि कमी नहीं थी.परन्तु एक बात तय था कि सञ्चालन की कमी के कारण एक अच्छे कार्यकर्म बिलकुल पूर्ण न हो सका.लौटते समय मैंने गौर किया संचालग महोदई भी थके हारे कुर्सी में बैठे कार्यकर्म समापन का इंतजार कर रहे थे.
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