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चक्रव्यूह

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चक्रव्यूह

वह तड़प रहा हैं क्योंकि फेका किसी ने
कटु शब्दों का जाल मन-सरोवर में
तिक्शन-भेदी वाण जैसे बनकर आया है
गहराई से भेद करता हुवा मनकों
दर्द का घूंट पीकर खुद ही सहता हैं
पर वह टीस कोई सुन नहीं पाता हैं
यह हैं वह चक्रव्यूह जिसमें हैं फंसा
चरों ओर घेर रखी हैं गरीबी ने वहां
सुचरित आज कोई मायने नहीं रखता
कारण यही गरीबी बनी उसका साथी
पर कोई इस घडी में क्यों भूल गया हैं
क़ि वह भी इस जग का ही हैं एक प्राणी
चक्रव्यूह में इस प्रकार फंस चुका हैं
क़ि वह बहार आने की तड़प में हैं
पर निकल नहीं पाता ,निकल नहीं पाता
इस जाल से वह निकल नहीं पाता हैं .
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