“शालू आज दफ्तर नहीं जाओगी क्या ?” माँ ने दीवाल पर टंगी घडी की और देखकर पुछा l “जाउंगी माँ l ” मैंने आज की अखबार पर नजरे गढ़ाए ही जवाब दिया l माँ किचेन की और चली गयी ओर मैं अनमने मन से बाथरूम में जा घुसी l दीक्षा कॉलेज जा चुकी थी l आकाश क्रिकेट देखने में मशगुल था l पिछले साल से दोनों मेरे साथ रहकर पढ़ रहा हैं l नहाकर ड्रेसिंग आईने के सामने बैठ कर चोटी गूँथ रही थी l तभी माँ ने अन्दर से आवाज लगाई l शालू खाना परोस दिया हैं जल्दी से खा ले l पिता के देहांत को आज कुछ महीने ही हुए हैं l माँ बिलकुल अकेली हो गयी हैं l इसीलिए,इसबार घर जाते समय उन्हें भी साथ लायी हूँ l अब भी मैं पिता के देहांत से खुद को उबार नहीं पायी हूँ l क्योंकि बचपन से ही मुझे पिता का सामीप्य ज्यादा मिला था l इसलिए मैं पिता से जितना खुलकर बात कर सकती थी उतना माँ से कभी नहीं l मेरी हर ख्वाहिशों को उन्होंने जहां तक संभव हो पूरा करने की कोशिश की है l बरबस आँखों से आंसू छलक आया l पिता का हौसला ही मेरे जीवन के लिए सबसे बड़ी हथियार थी l शायद इसीलिए मैं लोगों से कम डरती थी l आस -पड़ोस के लोग तो मुझे बेटा कहते थे l क्योंकि मैं बेटो की तरह सबकी हाथ बताया करती थी l पिता के तस्वीर के सामने खड़ी मैं नजाने कितनी देर तक उन्हें निहारती रही थी l पिताजी की याद जैसे दिल से निकल ही नहीं रहा था l एकायक माँ की आवाज मेरी कानो में आ टकराई -” शालू तुमने अभी तक खाना नहीं खाया ?” अपनी नमी आँखों को पोछती हुई मैं डाईनिंग टेबल कि और बढ़ गयी l माँ समझ गयी थी कि मैं पिता के तस्वीर के सामने रोई थी l माँ अक्सर समझाती – ” शालू मत रो, मरने वाले तो मर गए l उनकी आत्मा को शान्ति दे , कहते हैं रोने से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को तकलीफ पहुँचती हैं l शायद इसीलिए माँ अपने मनको समझाती होती l दफ्तर पहुँच चुकी थी l टेबल के ऊपर एक ख़त पड़ा था l अक्सर मेरा खत आता ही रहता हैं l मैंने लिफाफा उठाया और धीरे से खोला l ख़त प्रवेश का था l याद आया पिछले महीने उससे ट्रेन पर मुलाकात हुई थी l जब मैं पिताजी के अंतेष्टि के बाद लौट रही थी l उसने जो कुछ भी पत्र में लिखा था ,मुझे विशवास ही नहीं हो रहा था l क्या ऐसा कभी हो सकता हैं ? कुछ पल के मुलाक़ात में ही जिंदगी का इतना बड़ा फैसला कोई कर सकता हैं ?” मगर पत्र में ऐसा ही था l वह मुझसे शादी करना चाहता था l मैंने चुपचाप पत्र को बंद किया और बैग में डाल दिया l उसदिन दफ्तर में मैं काम कर न सकी l शाम को घर लौटी तो माँ ने पुछा -“शालू मुह क्यों लटकाए हुए हो ” “कुछ नहीं माँ ,ऐसे ही ,तबियत जरा ठीक नहीं लग रही l माँ समझ गयी थी मैं बताना नहीं चाहती l अपने कमरे में पहुँच मैं धडाम से पलंग पर लेट गयी l लेटे -लेटे ही मैंने बैग से वही ख़त निकला फिर पढने लगी l कितनी सहजदा से प्रवेश ने शादी प्रस्ताव लिख भेजा था l जिसे उसने चंद घंटो के सफ़र में ही जिंदगी का हमसफ़र बनाने का फैसला किया था l और एक वह था मोहित ! जिसकी ख़ुशी के लिए मैंने मेरे सारे सपनों को कुचल दिया था l कई बड़े-बड़े रिश्ते आये थे मेरे लिए l मगर मैंने मोहित के लिए वह सारे रिश्ते को ठुकड़ा दिया था l पिताजी कहते “बेटी तू कब तक मोहित के इंतज़ार करेगी ? उम्र कभी किसी के लिए रूकती नहीं और फिर मोहित उसका क्या भरोसा ! नहीं पिताजी वह ऐसा नहीं हैं l वह जरुर आएगा l मैं तर्क कर बैठती l मगर मोहित आया कहाँ ? जबकि उसकी अच्छी नौकरी भी लग चुकी थी l अचानक पिताजी के बिजनेस में हुए घाटे के कारण मैंने उनके कंधे को सहारा दिया l मैंने एक कंपनी में नौकरी ज्वाइन कर लिया l अरसे बाद एकदिन मेरे कार्यलय में मोहित आया और कहने लगा -“शालू तुम मुझे गलत मत समझना , मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता l इस वाक्य को सुन मेरा सर चकराने लगा l उसने कितनी आसानी से यह कह दिया था l और आगे उसने कहा -“देखो तुम सुन्दर हो पढ़ी -लिखी हो ,मुझसे अच्छे कई लड़के मिलेंगे l ” इससे पहले कि मैं और कुछ सुन पाती मैं तुरंत वहा से उठी और मेनेजर से तबियत बिगड़ने का बहाना बनाकर घर चली आई l पिताजी ने सब सुना मगर एक शब्द भी नहीं कहा मुझे l सुबह अखबार में एक सरकारी नौकरी की एडवर्टाईज छपी थी l चाय की चुश्की लेते हुए पिताजी ने पुकारा था l “शालू इधर आओ बेटा ,अब झटपट एक स्टेंडर फॉर्म भरकर एप्लाई कर लो l ” “क्या हैं पिताजी ?” “सरकारी नौकरी !” “सरकारी नौकरी ! मगर पिताजी हम जैसे गरीब को नौकरी थोड़ी न मिलेगी ?” “तू फॉर्म तो भर l जहाँ ईश्वर की कृपा हैं ,वहा कुछ भी संभव हो सकता हैं l ” मैंने फॉर्म भरकर अर्जी भेज दी l कुछ महीने बाद मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया l मुझे यकीं ही नहीं हो रहा था की मैं पुरे जिले में प्रथम थी l मुझे नौकरी मिल गयी l जीने का सहारा मिल गया l मैंने कंपनी जॉब रिजाइन किया l मेरी पोस्टिंग यहाँ से बहुत दूर पर कर दी गई l अपने अकेलेपन में किताबो के बीच तथा उस शांत व नए वातावरण में मैं अपने-आपको ढालने में कामयाब हो गयी थी l
एकदिन खबर मिली की पिताजी बीमार हैं l मैं तूफान की तरह भागती हुई घर की तरफ गयी l पिताजी के स्मृति आते ही बचपन में पहुँच गयी थी मैं l कितना प्यार करते थे मुझे l मैंने जिंदगी में जो चाहा हमेशा देने की कोशिश की हैं उन्होंने l उनके इस अपार-प्यार के कारण ही होगा मैंने उनके भरोसे को कभी टूटने नहीं दिया l कभी मैं बीमार पड़ी तो एक पल के लिए भी वे नहीं छोड़ते थे l मुझे याद हैं पिछले वर्ष जब मैं बीमार से अस्पताल में दाखिल हुई थी l वे खुद बीमार होते हुए मुझे देखने आये थे l कितने वृद्ध हो गए थे हमारे पिताजी और कमजोर भी एक झटके से गाड़ी रुक गयी l हमारा घर आ चूका था l मैं उतरकर जल्दी -जल्दी घर की तरफ भागी l पिताजी दर्द से कराह रहे थे l पास में कोई डाक्टर नहीं था l छुट्टी पर घर गया हुआ था l नौ दिन हो चुका था l मुझे देख वे अपना दर्द भूल गए l उन्होंने मुझसे बस इतना ही कहा था -“मेरी बेटी आ गयी हैं अब मैं अच्छा हो जाऊंगा l”पिताजी कुछ दिनों में अच्छे हो गये थे l मैंने अच्छे डाक्टर को दिखाया था l कुछ दिनों बाद पिताजी ने कहा, शालू तू अब जा, छुट्टी भी तो ज्यादा नहीं है l मैं ठीक हो गया हूँ l वे मेरी कितना फिकर करते थे l उन्हें छोड़ आने की इच्छा मुझे कतई नहीं थी l परन्तु नौकरी का सवाल था l मैं अपने कर्मस्थल लौट आई l दिन व्येतित होता गया l पिताजी का पत्र बराबर आने लगा l मगर एक दिन खबर आयी कि पिताजी हम सभी को छोड़कर हमेशा के लिए चले गए l कुछ पल के लिए लगा मानों मुझे किसी ने जोरदार थप्पर मार दिया हो l मुझे यकिन ही नहीं आ रहा था कि पिताजी सचमुच चले गये थे l कितने सपने थे उनकी l कहते -”शालू मोहित ने तुम्हे ठुकराया तो क्या हुआ, तुम्हे ऐसा वर मिलेगा जो तुम्हारी भावना का क़द्र करेगा l ” ”नहीं पिताजी, मैं शादी नहीं करुँगी l फिर आकाश, प्रकाश और दीक्षा के सपने भी तो पुरे करने है मुझे l ” बस मैं अपनी तर्कों से उन्हें चुप करा देती l घर आकर पिताजी के काम क्रिया समाप्त कर वापस लौट रही थी l उसी दौरान ट्रेन में प्रवेश मिला था l मैं याद करने लग जाती हूँ उस पल को l कितना हंसमुख और प्रसन्न चित्त का था प्रवेश l जब उसने पता माँगा था तो मैं इंकार कर न सकी थी l ” शालू दरवाजा खोलो l माँ ने दरवाजे पर दस्तक दी l मैं उठी और दरवाजा खोल दिया l आकाश और दीक्षा स्टडी रूम में ही था l माँ ने दोनों को बुलाया l डाइनिंग टेबल पर बैठे मैंने माँ से कहा – प्रकाश को भी यहीं बुला लो माँ l प्रकाश मेरा छोटा भाई है l ननिहाल में पड़ता है l तुम जैसा समझो l माँ ने संक्षिप्त उत्तर दिया l प्रवेश का कई ख़त आया था l उन्ही खतो में एक ख़त ऐसा था जिसमे उसने लिखा था l प्रिय शालू, यहाँ से मैंने तुम्हे कई ख़त भेजा, जाहिर है तुम मेरी भावनाओ को समझ रही होगी l अगले महीने की तीन तारीख को मैं छुट्टी में तुम्हारे घर आ रहा हूँ l उम्मीद है तुम मेरा आना बुरा नहीं मानोगी l ” प्रवेश ” कितना स्पस्टवादी युवक है प्रवेश और एक वो जिन्होंने मुझे मझधार में ही छोड़कर खुद को किनारा कर लिया था l पत्र पढ़ मैं यही सोच रही हूँ कि प्रवेश का मेरे घर में एक अनामंत्रित मेहमान की तरह प्रवेश करना कही पिताजी का ही आशिर्वाद तो नहीं ?
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