राजेन्द्र जी के सान्निध्य में कुछ पल ……………..
पिछले दिनों लखनऊ से पधारे साहित्यकार आदरणीय राजेन्द्र परदेसी जी के सान्निध्य में कुछ पल बिताने का मुझे मौका मिला l सुदूर देहरादून से साहित्यकार श्री भूपेंद्र जी ने दूरभाष द्वारा तेजपुर में उनकी उपस्थिति की बात कही थी l इससे पहले कि मैं उनसे संपर्क करू? उन्होंने स्वयं ही मुझे फोन किया l पता चला कि उनका बेटा ग्रेफ में इंजीनियर हैं l उनका पता मिलते ही मैं अपने पतिदेव के साथ उनसे मिलने उनके निवास पर पहुंची l
“नमस्कार l ” मेरा हाथ जुड़ गया l
“नमस्कार l आप रीता जी ?”
“जी हाँ,और आप हैं मेरे पतिदेव राकेश जी l ”
‘नमस्कार l ‘ अभिवादन आदान-प्रदान के पश्चात हम ड्राइंगरूम में बैठ गए l पता चला वे अपनी पत्नी के संग व्यक्तिगत भ्रमणार्थ नोर्थ -ईस्ट पधारे हैं तथा वह चाहते हैं कि यहाँ के गैर हिंदी साहित्यकारों से मिले l
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पेशे से इंजीनियर (अवकाशप्राप्त ) श्री राजेन्द्र जी बड़े ही खुशमिजाज,मिलनसार,सबको प्रोत्साहित करने वाले व्यक्तित्व हैं l वे दिल से लेखन और रेखांकन पर समर्पित हैं l कहते हैं “डर से बाहर निकलकर आओ l लिखने के लिए यहाँ बहुत संबल हैं l मैं स्वयं हिंदी नहीं जानता था l इंजीनियर व्यक्ति ग्राफ स्टडी करने वाला l मगर मेरी रूचि साहित्य की और थी l मैंने प्रयास किया और लेखक बन गया l
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प्रश्न :-“आपने कहा कि आप एक इंजीनियर हैं l फिर आप लेखन जीवन से कैसे जुड़े ? कोई प्रेरणा?”
“जी हाँ, जब मैं बहराइच (यु.पी )में नौकरी करता था तो रास्ते से गुजरते समय मेरी दृष्टि एक महिला पर पड़ी l जो एक बच्चे को स्तन पान करा रही थी और दूसरा उससे खाना मांग रहा था l लेकिन अंत में उसे खाना तो नहीं मिला पर माँ का एक जोड़दार चांटा सहना पड़ा l बेचारी के पास यदि खाना होता क्या व अपने बच्चे को नहीं देती! यही बात मेरे दिल को छु गई और शायद यही से मेरा लेखन की और झुकाव भी l
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प्रश्न : आपके लेखन जीवन के बारे में कुछ बताये ?”
उत्तर ; सन १९७५ से मैंने लिखना शुरू किया पर पहली बार १९७६ में साप्साहिक हिन्दुस्तान में मेरा पहला लेख ‘नौकरी ही क्यों व्यवसाय क्यों नहीं?’ छपा था l प्रोत्साहन मिलता गया और लेखन में गहरी रूचि बढती गई l मैंने गजल के सिवा कविता,कहानी,उपन्यास ,लघुकथा ,हाइकू,आलेख,साक्षात्कार लगभग हर विधा पर लिखने का प्रयास किया l मैंने १२० बड़े साहित्यकारों का साक्षात लिया हैं, जिसमे एक ही जीवित हैं l विष्णु प्रभाकर ,प्रभाकर माचवे,अमृतलाल नागर आदि l उनके सान्निध्य में मैंने बहुत कुछ सिखा l बाद में शब्द शिल्पियों की सानिध्य में एक साक्षात्कार संग्रह भी २००६ में छपी l
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प्रश्न: अपनी पुस्तकों के बारे में कुछ बताये ?”
उत्तर : लिखने का सिलसिला बढ़ता गया l मैं समझता हूँ ज्यादा से ज्यादा रचना पत्र-पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजना चाहिए ताकि आपकी पांडुलिपि सुरक्षित रहे l पहले खूब लिखे l अगर आप में काबिलियत हैं तो अवश्य ही लोगों की नजर में होंगी l वैसे अब तक मेरी आठ पुस्तके प्राकाशित हो चुकी हैं l
१. शब्द शिल्पियों के सान्निध्यों में (साक्षात्कार संग्रह)
२. दूर होते रिश्ते (कहानी संग्रह )
३. हताश होने से पहले (कविता संग्रह)
४.दूर होता गाँव (लघुकथा संग्रह )
५.शब्दों के संधान (हाइकु संग्रह )
६.भोजपुरी लोकगाथाए (प्रकाश विभाग,भारत सर्कार द्वारा प्रकाशित)
७. भय का भूत (बाल कहानी)
८.फिल्म पटकथा (साँची पिरातिया हमार प्रदर्शित भोजपुरी फिल्म )
नौवा प्रकाशनार्थ हैं l
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प्रश्न:अनुवाद और मौलिक रचना में आप क्या फर्क महसूस करते हैं ?”
उत्तर: अनुवाद करना भी एक कला हैं l मगर मेरी दृष्टि में मौलिक कला लिखना ज्यादा श्रेयस्कर हैं l हालांकि मेरी रचना भी अंग्रेजी,पंजाबी और मराठी में अनुवाद हो चुकी हैं l “
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प्रश्न: आपको भ्रमण करना कैसा लगता हैं ? कभी विदेश जाने का अवसर मिला हैं ?”
उत्तर : अक्सर भ्रमण करने का अवसर मुझे मिलता ही रहता हैं l सभी जगहों पर मैं जा नहीं सकता l नोर्थ-ईस्ट में यह मेरी दूसरी यात्रा हैं l देखिये विदेश भ्रमण को मैं भ्रमवाला मानता हूँ l अपने ही देश को पूरा देख नहीं पाए हैं अभी तक l अपने देश के अन्दर जो लोकसंगीत,नृत्य और लोकसंस्कृति हैं उसे कितने लोग जानते होंगे ?” हम बाते कर ही रहे थे की इतने में उनकी श्रीमती जी ने कुछ खाने के सामान सहित बैठक खाने में प्रवेश किया l मैंने बातो का सिलसिला आगे बढाते हुए उनसे प्रश्न किया –
प्रश्न: खाने में सर को क्या अच्छा लगता हैं?”
उत्तर ;मेरे इस प्रश्न पर हँसते हुए उन्होंने अपनी पत्नी की और इशारा करते हुए बोले- इस सवाल का उत्तर इनसे पूछिए l मेरे बारे में इनसे भला कौन अधिक जानता हैं ?काफी झेला हैं मुझे इन्होने l मैंने प्रश्न दोहराते हुए उनसे वही सवाल किया किया तो वे मुस्कुराती हुई बोली “मीठा l ” तो सर ने तपाक से कहा – ‘परन्तु पाबन्दी बहुत हैं मीठा खाने में l हँसते हुए उनकी श्रीमती जी ने कहा -इतना तो जरुरी हैं l “
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प्रश्न : एक साहित्यकार की पत्नी होने के नाते आप अपने आपको कहाँ देखती हैं ?”मौका देखकर मैंने उनकी श्रीमती जी से भी एक सवाल पुछा?
उत्तर: मेरे इस प्रश्न पर वे हंसती हुई बोली – कभी-कभी बोर हो जाती हूँ l ये तो अपने लेखन और रेखांकन में व्यस्त हो जाती हैं l फिर आगे बोली “एक बार अमृतलाल नागर जी हमारे घर आये थे l उन्होंने मेरे बेटे से कहा –
“बेटा सबकुछ बन जा मगर साहित्यकार कभी मत बनना l ” अर्थात! मैंने प्रश्न किया l साहित्यकार को सहन करना कम बात नहीं होती रीता जी ? परदेसी जी स्वयं ही बोल पड़े l
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प्रश्न: आप हिन्दुस्तान के लगभग सभी पत्र-पत्रिका से जुड़े हैं ? कुछ बताये l
उत्तर: जी हाँ , प्राय : सभी पत्र-पत्रिकाओं से मैं जुड़ा हुआ हूँ l इनमे नवनीत,भाषा, आजकल ,अक्षर पर्व ,गगनांचल आदि शामिल हैं l हिन्दुस्तान के सभी पत्र -पत्रिकाओं में अच्छी रचनाओं का स्वागत अवश्य करते हैं l बशर्ते लिखने वालों में दम होनी चाहिए l उसके लिये डर और झिझक को दूर करनी भी जरुरी होता हैं l मैंने देखा वह रेखंकर भी बहुत अच्छा कर लेते हैं l टेबल पर रखे रेखांकन को देखकर मैंने पुछा-
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प्रश्न :” रेखांकन के बारे में भी कुछ बताये ?”
उत्तर : “मैं ठहरा एक इंजिनियर आदमी , एक बार बेटी के साथ मैंने भी शोक में आर्ट ज्वाइन किया l अच्छे गुरु मिले l धीरे-धीरे इस विधा पर भी मेरी रूचि बढती गई l “
प्रश्न : दिल्ली और अन्य राज्यों के रचनाकारों में क्या भिन्नता हैं?”
उत्तर: भिन्नताए तो हैं देल्ली के रचनाकारों में l ४० साल पीछे का गाँव दिल्ली में बैठकर भला कैसे अनुभव कर सकते हैं l अगर मौलिकता ढुंढनी हो तो वहां से निकलकर भारतवर्ष के उन गावो में जाना होगा, जहाँ आज भी कोयल की कूके मधुर संगीत बिखेरती हैं l देखिये अच्छे रचनाकारों को कोई नहीं रोक सकता l अत:तमाम गैर हिंदी राज्यं के रचनाकारों को स्वयं ही निकलकर आना होगा l
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प्रश्न: ईश्वर के प्रति आप कितना आस्था रखते हैं ?” मैंने अगला सवाल किया l
उत्तर; ईश्वर के प्रति आस्था तो हैं पर मंदिरों में नहीं l मैं नहीं समझता की मंदिरों में जाने से ही ईश्वर की प्राप्ति होती हैं l हाँ ,गोल्डेन टेम्पल जाकर मुझे बहुत अच्छा लगा था l
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प्रश्न: असम के रचनाकारों से आप क्या कहना चाहेगे ?”
उत्तर: देखिये ,नार्थ -ईस्ट के जितने भी साहित्यकार हैं मेरा मतलब हैं क्षेत्रीय भाषा के साहित्यकार से हैं, मैं कहना चाहता हूँ की कुछ लोग यह धारणा बना लेते हैं की हिंदी वाले आपको स्थान नहीं देते l हिंदी मेग्जिन वाले तो खुद चाहते हैं की यहाँ की रचनाये भी छपे l देखिये हम लाख यहाँ आकर सप्ताह भर रहे ,लेकिन यहाँ के परिवेश,भाषा,संस्कृति के बारे में आप बेहतर लिख सकते हो l भाषा की बात की जाए तो मैं समझता हूँ भाषाई शुद्धता लिख-लिखते सुधर जाती हैं l हम मकान बनाते हैं तो उसका मॉडल चेंज करते हैं कि नहीं ?इसी तरह लेखन में भी भिन्नता देखने को मिलता हैं l
श्री राजेन्द्र परदेसी जी विभिन्न संस्थाओं से भी जुड़े हैं l निदेशक -पंजाब कला साहित्य अकादमी,जालंधर (पंजाब)
अध्यक्ष -भारतीय कला-साहित्य संसथान (बिहार)
अध्यक्ष – कला भारती संस्थान (बस्ती)
चलते-चलते मैंने उनसे अपना अंतिम सवाल रखा –
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प्रश्न: स्त्री विमर्श के बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे ?”
उत्तर :मेरे इस प्रश्न पर उन्होंने कहा -“देखिये स्त्री स्वतन्त्रता को देखा जाए तो दो बाते सामने आती हैं पहली बात यह हैं कि परिवार समूह से चलती हैं l दूसरी यह हैं कि कोई भी इकाई से नहीं चल सकता l चाहे आप पुरुष इकाई की बात कहे या स्त्री इकाई की l जब तक पुरुष से दबकर स्त्री रहती हैं l तब तक मैं नहीं समझता स्त्री स्वतंत्र हैं l मेरा मानना हैं जब स्त्री अपने पति की बराबरी में चलने लगती हैं तभी स्त्री स्वतंत्र हो पाती हैं l परन्तु इकाई स्वतंत्रता को मैं स्वतंत्रता नहीं स्वच्छंदता मानता हूँ l वर्ना पश्चिमी देश के लोग शान्ति की तलाश में इस्टर्न की ओर क्यों रुख कर रहे हैं ?बात तो उन्होंने बिलकुल सही कहा था l वक्त काफी हो चुका था l अत: हम भी उनसे विदा लेकर वापस चल पड़े l
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