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अनोखी भिखारिन (मेरी अनुदित नेपाली कहानी )मूल: लक्ष्मी मीनू,आइजोल (मिजोरम )

मेरी कहानियां
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अनोखी भिखारिन

मूल :लक्ष्मी मीनू ,आइजोल अनु : रीता सिंह ‘सर्जना’

अचानक मोई (मिजो नाम ) घर से बाहर निकली तो उसे लगा उसके सारे दर्द ,सारा अपमान जैसे विश्राम लेकर सो रहा हो l चोट के दर्द से विमुख होने पर ह्रदय का धड़कन भी सामान्य हुआ प्रतीत हो रहा था l भारमुक्त होकर उसका मस्तिष्क एक मीठे सपने के डोर में एक सुरीला सपना बुनने के लिए वे उत्सुक हो रही थी l
आकांक्षाओ के उन्मुक्त उड़ान को मोई अपने आँचल में बाँधना चाहती हैं l कुछ पल के आजादी को यदि आकांक्षाये आदत बना दे तो क्या दर्द दोगुणा नहीं होगा ? इसी अधेड़बुन में चल रही मोई आज फिर चेकअप कराने अस्पताल पहुंची हैं l उसके मलिन पड़े चेहरे मगर स्वतंत्र होकर चल पाने से उसके चेहरे पर चमक देखी, फिर उसदिन की याद हो आई ……….l
दिसंबर महीने की जाड़े का दिन ………..एक सुबह, खाली पैर फटे-पुराने मैले कपडे पहनकर खुरदरे हाथ से मेरे हाथ पकड़ते हुए चिबाई-चिबाई (नमस्ते ) बोली l उस खुरदरे हाथ का अनुभव आज भी मेरे मानसपटल पर विद्यमान हैं l
“किधर चली ? इतनी सुबह ? मैं मिजो भाषा में पूछती हूँ l नजानते हुए भी मोई ने नेपाली भाषा में कहा – “मेरा आपरेशन करना हैं l सिने में दर्द हैं l पैसे नहीं हैं l मेरा पति भी गोरखाली थे l पिछले साल चल बसे l मेरी एक बेटी की शादी हो चुकी हैं l और बेटा अलग रहता हैं l मैं अकेली रहती हूँ l उसने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए यह पूरा वाक्य एकबार में ही कहा था l
आपरेशन के लिए बहुत पैसा चाहिए मेरे पास भला उतना पैसा हैं कहाँ ? मैंने कहा l
कुछ भी देने से होगा l दुसरे से भी मागुंगी l उदासी चेहरे के साथ वह बोली l मैं २०० सौ रूपये देती हूँ l वह कलोमे…कलोमे (धन्यवाद)कहती हुई फिर वही खुरदरे हाथ मिलाती हुई फिर आती हूँ कहकर चली जाती हैं l
एक सप्ताह पश्चात वह फिर आ धमकती हैं l मेरा पापी मन यह सोचने लग जाता हैं की कही ये बूढीया की आदत तो नहीं हुई जो बार-बार आने लगी हैं l सोच और वास्तविकता में कितना अंतर हैं ? इंसान क्यों अच्छे के बजाये बुरा पहले सोचता हैं ? सत्य के बजाये असत्य को पहला स्थान में क्यों रखता हैं ?

जमीन पर दस-पंद्रह संतरों को फेकते हुए वह बोली -” लो यह संतरा रखों , बच्चे खायेंगे l मैं आश्चर्यचकित रह जाती हूँ l मेरी सोच के विपरीत कितना पवित्र विचार हैं उस भिखारिन का !! एक मांगने वाली की वह उदारता देखकर मैं स्वयं को भिखारिन सा महसूस करने लगी l उसकी इस हरकत से मेरा मन खुश हुआ l मैं मन ही मन सोचने लगी- “अनोखी भिखारिन हैं” l
आज मोई आपरेशन के लिए अस्पताल जाते वक्त मेरा मन उदास हो गया l अचानक मेरा पग उसके पीछे-पीछे अस्पताल तक पहुँच गई l उसकी अपनी कहने वाली एक बेटी के सिवा वहां कोई नहीं था l मैं उसे ५०० रूपये देते हुए घर वापस चली आई l

शाम पांच बजे मीठा संतरा खा रही थी l तभी अस्पताल से फोन आया की वह भिखारिन आपरेशन के दौरान ही हमेशा के लिए सो गई l यकायक मेरे हाथ से संतरा जमीं पर गिर गया l और मुझे उस भिखारिन के लाये संतरे की बात याद हो आई l
दूर मंदिर पर टिंग-टिंग घंटी की आवाज सुनाई पड़ने लगा l
आज भी जब मैं अपना हाथ देखती हूँ तो उसकी खुरदरे हाथों की याद हो आती हैं l

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समाप्त

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