शुभचिंतक और वृक्ष (दो कविताएँ )
(विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष )
शुभचिंतक
ऋतु के अनुसार ,
मैं भी अपना परिवर्तन करता हूँ
तुम्हारी ही तरह
मैं भी जीता हूँ
और मरता हूँ
तेज हवाओं के झोके से
मैं अपना चोला बदलता हूँ
और फिर
धीरे-धीरे नए चोले में
अपने को
समेट लेता हूँ
इतने से ही मैं
संतुष्ट नहीं होता
मैं अपने को अलंकार से
सजाता हूँ
और तुम यह देख ख़ुशी से झूम उठते हो
पर नादान .
बच्चे की तरह
मेरे इन गहनों को तुम लेना चाहते हो
तुम्हे शायद पता नहीं
हमारा भी दिल होता हैं
पर तुम
हमारे बेजुबान होने का फायदा
उठा ही लेते हो
मेरे – जैसे ही मेरे वंशज
आज
मिटने के लिए मजबूर हैं
परन्तु,
तुम्हे क्या पता
मैं तुम्हारा कितना शुभचिंतक हूँ l
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वृक्ष
वृक्ष
आज व्यथित हो उठा हैं
चोट खाने से
बिना इसी कुसूर के
चुपचाप सहमे
आंसू बहते हुए
वृक्ष
जो बना था
सृष्टि से मानव का मीत
गर्मी हो या शीत
मानव का बन सदा हितैषी
छायी थी हरियाली
वृक्ष
आज मृत्यु की सेज पर खड़ी हैं सृष्टि
अकाल मृत्यु होने से
चारो और के परिवेश ने
किया हैं धारण प्रदुषण के रूप में
जो विषाक्त बन छाया हैं वायुमंडल में
वृक्ष
आज भी मानव का मित्र हैं
चाहे तो मानव अब भी
इसे नया जीवन दे सकता हैं
बदले में उसे भी
स्वच्छ वातावरण मिल सकता हैं l
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