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अकड़ (लघुकथा )

मेरी कहानियां
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अकड़ (लघुकथा )

रोज-रोज की खिट -पिट से तंग आकर मैंने अपनी सहायिका से कह तो दिया कि- ” कल टाइम से यदि नहीं आ सकती हो तो मत आना l ” परन्तु दुसरे ही पल मुझे बहुत बुरा लगने लगा यह सोचकर कि एक गरीब मजबूर औरत बेचारी कहाँ-कहाँ भटकेगी ? जिसके छोटे-छोटे बच्चे हैं l रुनु हाँ यही नाम हैं मेरी सहायिका की , पिछले महीने में ही तो काम पर लगी हैं l मेरी एक पड़ोसन ने उसे सुझाया था l एक सहायिका का दरकार मुझे कब से थी l भई घर और नौकरी एकसाथ संभालना इतना आसान थोड़ी न हैं ? इसलिए एक सहायिका की मुझे बेसब्री से तलाश थी l जब रुनु आई तो मैंने पहले से ही कह दिया की सुबह सात बजे से काम में आना पडेगा l क्योंकि मुझे भी स्वयं साढे नौ बजे तक दफ्तर के लिए निकलना पड़ता हैं l उसने कहा -” आ जाउंगी दीदी l ”
‘ठीक हैं , अब बोलो पगार कितना लोगी?’
‘जैसे आप उचित समझो ”
नहीं-नहीं तुम बोलो -” दो हजार”‘ उसने कहा l
“ठीक हैं l कल से टाइम पर आ जाना l ” दुसरे दिन वह टाइम पर आ गई l पर धीरे-धीरे वह लेट आने लगी l अब सात की जगह नौ / साढ़े नौ में आने लगी l कभी कुछ समस्या तो कभी कुछ , परेशान हो उठी मैं उससे l उसे आने की याद नहीं रहती पर जाने का हिसाब बड़ी अच्छी तरह याद रहती है l एक महिना किसी सूरत बीत गया l मन ही मन सोचा पगार देते वक्त सख्ती से पेश आउंगी सोचकर मैंने उससे कहा था l फिर मैंने कहा आठ बजे तक चली आना l परन्तु इसका उलटा ही असर हुआ l जवाब में बोली आठ बजे तक मैं नहीं आ सकुंगी l मुझे भी अपना घर देखना होता हैं l कहने का मन तो हुआ की नौकरी लेते वक्त क्यों नहीं सोची l पर बस इतना ही कहा – “अच्छा चल ठीक हैं न तुम्हारी न मेरी साढ़े आठ बजे तक चली आना l ” जब वह कुछ न बोली तो मैंने कहा – “ठीक हैं जैसी तुम्हारी मर्जी l पर फिर भी भी कहती हूँ यदि तुम टाइम से आ सको तो आ जाना l ” वह पगार लेकर चली गई l पर मेरा ह्रदय पूरा समय द्रवित होता रहा मानो मेरा अपना कोई बिछुड़ गया हो l सच कैसे एक इंसान को दुसरे इंसान से लगाव हो जाता हैं l वह तो मेरी कोई नहीं लगती ! परन्तु सभी इंसान एक जैसे कहाँ होते हैं ? रुनु भी उनमे से एक थी l दुसरे दिन वह नहीं आई …….उसके नौकरी छोड़ने का गम मुझे पुरे के पुरे समय सालता रहा l पर रुनु की अकड़ तो देखो इस बात से बेखबर उसे नौकरी छोड़ने का ज़रा भी गम नहीं था l

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