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संतुष्टि (लघुकथा )

मेरी कहानियां
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संतुष्टि (लघुकथा )

हावड़ा स्टेशन में हमेशा की तरह भीड़ थी l मुझे आज गुवाहाटी लौटना था l इसीलिए मैं ट्रैन की तरफ आगे बढ़ने लगी l लेकिन फिर सोचा क्यों न पहले खाना खा लिया जाए ,सो मैं रेस्टुरेंट की और मुड़ गई l रेस्टुरेंट लोगों से खचाखच भरा हुआ था l मैंने बैठने के लिए अपनी नजरे दौड़ाई ,थैंक गॉड एक सीट कोने में खाली थी l मैंने फ़ौरन जाकर कुर्सी पर अपना लगेज रखा और वॉश वेशिन की ओर चल पड़ी l हाथ धोकर मैं जैसे बाहर आई तो मेरी नजर एक वृद्धा पर पड़ी जो बेहद कमजोर लग रही थी l वह हाथ में एक थाल लिए खाना मांग रही थी – ” केउ आमाके अल्पो भात देऊ आमार खिदे पेयेच्छे ” (कोई मुझे थोड़ा सा भात दो ,मुझे भुख लगी हैं ) , ताज्जुब उसकी यह बात किसी को सुनाई नहीं दी ,न ही किसी ने उसे देखा , मैं मन ही मन सोचने लगी -“क्या सचमुच लोगों की संवेदनाये मर चुकी हैं ?” जबकि उसके बगल में ही एक दम्पति मछली -भात खाने में व्यस्त थे l वृद्धा के लिए मुझे बहुत बुरा लगा ,अभी भी वह भात के लिए रट लगाए जा रही थी l अचानक उससे मुखातिव होकर मैंने उसे कहा – अम्मा मैं आपको खाना दूंगी ,यही बैठी रहो l इतना कहकर मैं काउंटर की तरफ चली गई l थोड़ी देर में जब मैं खाना लेकर लौटी तो अम्मा दिखाई नहीं दी l अरे कहाँ गई अम्मा !!! मैंने नजरे दौड़ाई तो देखा वह बाहर गेट के पास जमीं पर बैठी मेरे आने की प्रतीक्षा कर रही थी l ” अरे अम्मा आप यहां बैठी हो , मैंने सहारा देकर उन्हें उठाया और कुर्सी पर बिठाया ” खाना खालो अम्मा ” कहते हुए मैंने खाने की थाली आगे बढ़ा दी l फिर पानी का ग्लास भी l उनकी आँखे चमक उठी l उन्होंने खाने में देर नहीं की l सचमुच वह बहुत भूखी थी l मैं नहीं जानती वह कौन थी ? किसकी माँ थी ? और क्यों अवहेलित थी पर मुझे इस बात से जरूर संतुष्टि थी कि अम्मा का पेट भर गया था l
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रीता सिंह “सर्जना “

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